क्या आपने कभी ये सोचा है... कि हम बार-बार इस दुनिया में क्यों आते हैं?
जन्म लेते हैं, बड़े होते हैं, दुख-सुख झेलते हैं, फिर एक दिन... चले जाते हैं।
और उसके बाद... क्या? क्या बस शून्य? या फिर कुछ और?
👉 हमारी आत्मा क्या सच में अमर है?
👉 क्या मरने के बाद भी कोई यात्रा बची होती है?
👉 और सबसे ज़रूरी सवाल – क्या हम उस यात्रा को खत्म कर सकते हैं?
दोस्तों, यही सवाल हमें ले आता है "मोक्ष" की ओर।
मोक्ष – यानी मुक्ति।
ना कोई अगला जन्म, ना कोई पिछली याद।
ना सुख का लोभ, ना दुख की पीड़ा।
बस… पूर्ण शांति, पूर्ण ज्ञान, और परमात्मा में एकत्व।
हिंदू धर्म में, मोक्ष को सबसे बड़ा लक्ष्य माना गया है।
धन-दौलत, यश-मान, रिश्ते-नाते – ये सब जीवन के पड़ाव हैं।
लेकिन आखिरी मंज़िल?
मोक्ष।
अब ज़रा सोचिए...
जब एक ऋषि हिमालय की गुफाओं में ध्यानस्थ होता है,
जब एक राजा राजमहल छोड़ कर जंगल की ओर निकल जाता है,
जब एक आम इंसान – अपने हर कर्म में आत्मज्ञान खोजने लगता है...
तो वो क्या ढूंढ रहा होता है?
एक ही जवाब है – मोक्ष।
लेकिन दोस्तों, ये मोक्ष सिर्फ ग्रंथों की बात नहीं है।
ये आज भी हमारे जीवन से जुड़ा है –
जब हम बेचैन होते हैं,
जब हम जीवन में खालीपन महसूस करते हैं,
जब हमें लगता है कि सब कुछ होते हुए भी “कुछ” अधूरा है...
तो शायद हमारी आत्मा हमें उसी ओर बुला रही होती है।
हमारे जीवन के सबसे पुराने बंधन से –
जन्म और मृत्यु के उस न रुकने वाले चक्र से,
जिसे हम संसार कहते हैं।
जैसे एक पिंजरे में कैद पंछी,
हर बार जन्म लेता है…
हर बार कुछ सीखता है…
पर मुक्त नहीं हो पाता।
हम सब उस पंछी की तरह हैं।
भाग रहे हैं…
दौड़ रहे हैं…
कुछ पाने की कोशिश में…
पर कभी रुक कर सोचते हैं क्या कि…
क्या यही सब कुछ है?
हिंदू धर्म कहता है कि जीवन के चार उद्देश्य होते हैं –
धर्म, अर्थ, काम… और अंत में मोक्ष।
यानी…
कर्तव्यों का पालन करो (धर्म),
संसारिक समृद्धि अर्जित करो (अर्थ),
इच्छाओं को संतुलित रूप से पूरा करो (काम),
और फिर अंत में…
सब छोड़ दो।
क्योंकि अंत में जो बचता है… वो सिर्फ आत्मा होती है।
और ये आत्मा –
इस शरीर, रिश्तों, और इच्छाओं की गुलाम नहीं है।
उसका लक्ष्य है –
परम ब्रह्म में विलीन हो जाना।
अब सवाल उठता है –
“मोक्ष की तलाश कौन करता है?”
क्या सिर्फ सन्यासी?
या फिर कोई भी?
आइए जानते हैं… कुछ पात्रों के ज़रिए।
गंगा के किनारे बैठा एक सन्यासी,
जो न कुछ चाहता है,
न कुछ छोड़ने से डरता है…
उसका ध्यान सिर्फ एक चीज़ पर होता है –
मोक्ष।
विवेकानंद,
रामकृष्ण परमहंस –
ऐसे संत जिन्होंने संसार को समझा… स्वामी
और फिर उसे पार कर दिया।
इनका रास्ता था – तपस्या, ध्यान और वैराग्य।
पर क्या सिर्फ संन्यासी ही मोक्ष पा सकते हैं?
गीता में श्रीकृष्ण खुद कहते हैं –
"निष्काम कर्म करो। फल की चिंता मत करो।"
यानि जो गृहस्थ जीवन जीते हुए भी
अपने कर्मों को समर्पण की भावना से करता है…
वो भी मोक्ष के योग्य है।
मतलब…
आप और मैं…
घर-परिवार में रहते हुए, नौकरी करते हुए भी…
अगर सही दृष्टिकोण से जीवन जिएँ,
तो हम भी इस “मोक्ष मार्ग” पर चल सकते हैं।
अब बात करते हैं –
उन लोगों की जो आत्मज्ञान की तलाश में हैं।
जो वेद, उपनिषद, और भगवद्गीता के श्लोकों को
सिर्फ पढ़ते नहीं,
बल्कि जीते हैं।
ये विद्यार्थी, ज्ञान के माध्यम से
मोक्ष को समझते हैं।
फिर आते हैं योगी –
जो अपने मन को नियंत्रित करते हैं,
अपनी साँसों पर ध्यान केंद्रित करते हैं,
और चित्त को एकाग्र कर
ईश्वर से जुड़ते हैं।
राजयोग, हठयोग, ध्यान –
ये सब योगी के रास्ते हैं…
जो अंततः मोक्ष तक पहुँच सकते हैं।
अब एक दिलचस्प बात…
क्या सिर्फ मनुष्य ही मोक्ष पा सकता है?
(थोड़ी रहस्यपूर्ण आवाज़ में)
बिल्कुल!
जानवरों के पास चिंतन करने की शक्ति नहीं होती –
वे तमोगुण में फँसे रहते हैं।
देवता?
वो भी हमेशा मोक्ष नहीं पा सकते…
क्योंकि उनके पास ऐश्वर्य का अहंकार होता है।
पर इंसान –
इंसान के पास है विवेक,
चिंतन,
और सबसे ज़रूरी – चुनाव करने की शक्ति।
निग्रहाचार्य श्री भगवानानंद जी कहते हैं –
“मनुष्य शरीर ही ऐसा है जो मोक्ष प्राप्त करने में सक्षम है।”
क्यों?
क्योंकि हम सोच सकते हैं,
अपनी गलतियों से सीख सकते हैं,
ध्यान कर सकते हैं,
और…
अपने अंदर झाँक सकते हैं।
हमारे अंदर वो सारी योग्यता है,
जो मोक्ष की ओर जाने के लिए चाहिए।
तो क्या हम इस जीवन को सिर्फ
संसार की दौड़ में ही गँवा देंगे?
या फिर कुछ पल निकाल कर…
उस दिशा में भी सोचेंगे
जहाँ स्थायी शांति है?
तो दोस्तों,
मोक्ष कोई सिर्फ कल्पना नहीं है…
ये एक यात्रा है –
जिसकी शुरुआत आज,
अभी,
यहीं से हो सकती है।
कहते हैं ना…
"हर आत्मा की अपनी एक राह होती है…"
और जब बात हो मोक्ष तक पहुँचने की,
तो हिंदू धर्म हमें सिर्फ एक नहीं…
बल्कि चार मार्ग दिखाता है।
चार रास्ते…
चार दृष्टिकोण…
लेकिन मंज़िल – सिर्फ एक – मोक्ष।
कभी मीराबाई को गाते हुए सुना है?
"मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई…"
ये सिर्फ एक भजन नहीं था –
ये था उनका पूरा जीवन।
भक्ति योग, यानी वो मार्ग
जहाँ आत्मा ईश्वर में पूरी तरह समर्पित हो जाती है।
न कोई तर्क,
न कोई शंका –
बस प्रेम… और पूर्ण समर्पण।
भगवद्गीता के अध्याय 7 से 12 में श्रीकृष्ण ने विस्तार से बताया –
कैसे अनन्य भक्ति रखने वाला भी
मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
संत कबीर हों या मीराबाई,
इन लोगों ने किताबों से नहीं,
बल्कि अपने दिल से ईश्वर को जाना।
क्या आप कभी इतने डूबे हैं किसी भावना में…
कि दुनिया भूल जाए?
बस वही डूब जाना…
भक्ति योग की असली पहचान है।
अब सोचिए…
अगर आपको पता चल जाए कि
आप ये शरीर नहीं, आत्मा हैं –
तो क्या फिर भी आप डरेंगे, दुखी होंगे, या मोह में फँसेंगे?
ज्ञान योग, यानी बुद्धि और विवेक का रास्ता।
यह मार्ग कहता है –
"पहले जानो, फिर मानो।"
उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों में कहा गया है –
"अहं ब्रह्मास्मि" – मैं ही ब्रह्म हूँ।
यानी जब तक हम खुद को
शरीर, नाम, रिश्ते, और कर्मों से जोड़ते रहेंगे,
तब तक मोक्ष संभव नहीं।
लेकिन जैसे ही आत्मा और परमात्मा की एकता को समझ लिया…
मोक्ष का रास्ता खुल जाता है।
आदि शंकराचार्य…
एक युवा सन्यासी,
जिसने सिर्फ 8 साल की उम्र में वेदांत को समझ लिया,
और फिर पूरी दुनिया में ज्ञान का दीप जलाया।
उनका जीवन बताता है –
कि सच्चा ज्ञान सिर्फ किताबों में नहीं…
बल्कि अंतर्यात्रा में होता है।
अब आते हैं कर्म योग पर।
यानी – काम करो, पर फल की इच्छा मत रखो।
अब आप कहेंगे –
“भाई, काम तो करते हैं फल के लिए ही!”
लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं –
"कर्म करो, पर खुद को कर्म का मालिक मत समझो।"
महात्मा गांधी को ही देखिए…
उनकी पूरी ज़िंदगी एक सेवा, एक यज्ञ थी –
लेकिन उन्होंने कभी उसके बदले कुछ माँगा नहीं।
कर्म योग हमें सिखाता है –
कि घर, ऑफिस, समाज –
हर जगह, अगर हम निष्काम भाव से कर्म करें,
तो वही काम ध्यान बन जाता है…
और ध्यान से होती है मुक्ति की शुरुआत।
क्या आपने कभी ऐसा काम किया है…
जो आप सिर्फ दिल से, बिना कुछ पाने की उम्मीद के करते हों?
अगर हाँ…
तो आप पहले ही कर्म योग पर चल रहे हैं।
अब बात करते हैं सबसे अंदरूनी मार्ग की – राजयोग।
यह वो रास्ता है…
जहाँ शब्द नहीं चलते,
ध्वनि नहीं होती…
बस शून्यता होती है।
राजयोग का आधार है –
चित्त की वृत्तियों को रोकना।
यानि मन को पूरी तरह शांत करना।
(पतंजलि के शब्दों में)
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” –
योग वही है, जब मन की सारी हलचल रुक जाए।
जिन्होंने योग को घर-घर पहुँचाया –
उन्होंने राजयोग को केवल गुफाओं तक सीमित नहीं रखा।
बल्कि उसे हमारे रोज़ के जीवन में उतारा।
कि मोक्ष तक पहुँचने के लिए
कभी-कभी हमें बाहर नहीं,
अपने अंदर उतरना होता है।
अब सबसे बड़ा सवाल –
“इन चारों में से मेरा रास्ता कौन सा है?”
हर आत्मा अलग होती है…
कोई भावुक होता है – वो भक्ति योग अपनाता है।
कोई बुद्धि प्रधान – वो ज्ञान योग।
कोई सेवा भाव से भरा – वो कर्म योग।
और जो मौन और ध्यान पसंद करे – उसके लिए है राजयोग।
और कभी-कभी…
ये सारे रास्ते एक-दूसरे से जुड़ भी जाते हैं।
जैसे एक नदी –
जो कभी भक्ति बनकर बहती है,
कभी ज्ञान बनकर गहराई लेती है,
कभी सेवा बनकर संसार को छूती है,
और अंत में…
समाधि के सागर में विलीन हो जाती है।
तो दोस्तों,
मोक्ष कोई एक दरवाज़ा नहीं…
ये एक यात्रा है,
जहाँ रास्ते बदल सकते हैं,
लेकिन मंज़िल हमेशा एक ही रहती है।
👉 अगले वीडियो में हम जानेंगे –
“क्या आज के युग में भी मोक्ष संभव है? क्या ये सिर्फ कल्पना है या एक जीवंत अनुभव?”
तब तक…
अपने मन से पूछिए – मैं किस मार्ग पर चल रहा हूँ?
और याद रखिए –
कोई भी राह छोटी नहीं होती… जब मंज़िल मोक्ष हो।
कभी आपने सोचा है…
जिस मोक्ष की बात हमारे ग्रंथों में होती है,
क्या वो आज भी उतना ही प्रासंगिक है,
जितना हज़ारों साल पहले था?
या फिर...
क्या मोक्ष सिर्फ एक "पुराने ज़माने की अवधारणा" बनकर रह गया है?
आज हम जानेंगे:
कैसे मोक्ष की कल्पना वैदिक यज्ञों से निकलकर
आधुनिक योगाश्रमों तक पहुँची है…
और कैसे आज का इंसान – जो हर वक़्त भाग रहा है –
वो भी, कहीं ना कहीं… मोक्ष ही ढूँढ रहा है।
चलो शुरुआत करते हैं… उस दौर से
जब इंसान ने पहली बार स्वर्ग की ओर नज़रे उठाईं।
इस समय, मोक्ष की बात कम थी…
यहाँ ज़ोर था यज्ञों पर, अनुष्ठानों पर, और देवताओं को प्रसन्न करने पर।
लोग मानते थे –
अगर हमने रितु-ऋतुअनुसार यज्ञ किए,
तो स्वर्ग मिलेगा – और वही है अंतिम लक्ष्य।
लेकिन क्या ये वास्तव में मोक्ष था?
या सिर्फ एक और सुखमय लोक?
फिर आया आंतरिक खोज का युग – उपनिषदों का समय।
यहाँ सवाल बदले –
"मैं कौन हूँ?",
"क्या शरीर ही मैं हूँ?",
"अगर शरीर मरता है, तो आत्मा कहाँ जाती है?"
और तब उपनिषदों ने हमें सिखाया –
कि आत्मा अमर है…
और उसका अंतिम लक्ष्य है –
ब्रह्म से एक हो जाना।
यही था मोक्ष का असली जन्म।
अब मोक्ष केवल स्वर्ग नहीं…
बल्कि आत्मज्ञान का परिणाम बन गया
और फिर…
कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के सवालों ने
हिंदू दर्शन की सबसे अमूल्य निधि को जन्म दिया – भगवद्गीता।
श्रीकृष्ण ने कहा –
"मोक्ष पाने के कई मार्ग हैं…
भक्ति, ज्ञान, कर्म और ध्यान।"
और सबसे खूबसूरत बात?
अब मोक्ष केवल सन्यासियों के लिए नहीं था –
एक गृहस्थ भी, एक योद्धा भी, एक किसान भी – सब इस यात्रा पर चल सकते थे।
अब सवाल ये है –
आज के ज़माने में,
जब लोग मोबाइल में डूबे हैं,
मीटिंग्स में फँसे हैं…
क्या मोक्ष जैसी बातों की कोई जगह बची है?
(थोड़ा चौंकाने वाला खुलासा)
असल में, आज मोक्ष पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है।
देखिए ना…
हर तीसरा इंसान तनाव से ग्रस्त है।
भागदौड़, अनिश्चितता, डर –
हर कोई किसी ना किसी मानसिक बोझ से जूझ रहा है।
अब मोक्ष का अर्थ बदल गया है –
ब्रह्म में लीन होने से पहले,
मन की शांति पाना ही मोक्ष लगने लगा है।
योग और ध्यान – जो कभी मोक्ष के साधन थे,
अब डॉक्टर की सलाह बन चुके हैं।
आपने कभी महसूस किया है…
कि सबकुछ होने के बावजूद,
मन में कोई खालीपन रह जाता है?
वो खालीपन क्या है?
यही है –
मोक्ष की पुकार।
भौतिकता से परे
जो तलाश हम सब करते हैं –
"क्यों जी रहे हैं?"
"क्या मकसद है?"
– यही वो सवाल हैं जो आज के युवा को भी मोक्ष की ओर ले जाते हैं।
आज जब पश्चिम की दुनिया भारत में योग सीखने आती है,
जब ISKCON हर कोने में हरे राम-हरे कृष्ण गूँजाता है,
तो हमें समझ में आता है कि
मोक्ष सिर्फ धार्मिक नहीं,
बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान है।
परमार्थ निकेतन जैसे आश्रम ना सिर्फ ध्यान सिखाते हैं,
बल्कि सेवा को भी मोक्ष का माध्यम बनाते हैं।
तो अंत में…
क्या हम कह सकते हैं कि
मोक्ष सिर्फ मोक्ष नहीं है?
यह है –
एक जीवन शैली,
एक सोच,
एक आंतरिक शांति की खोज।
यह धर्म से जुड़ा है,
लेकिन सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं।
यह व्यक्ति को चरित्र, कर्तव्य, और करुणा सिखाता है।
और सबसे बड़ी बात…
मोक्ष सिखाता है –
कैसे जीवन जिया जाए…
इस तरह कि मृत्यु भी अर्थपूर्ण लगे
तो दोस्तों,
अगर आपने ये पूरा अध्याय सुना है,
तो शायद… कहीं ना कहीं
आपके अंदर भी एक तलाश है।
एक उद्देश्य की, एक शांति की, एक मोक्ष की।
👉 और यही यात्रा…
आज से शुरू हो सकती है।
बस एक सवाल पूछिए –
मैं अपने जीवन में किस चीज़ से मुक्त होना चाहता हूँ?
जवाब वहीं से आएगा,
जहाँ मोक्ष की शुरुआत होती है –
आपके अंदर।
धन्यवाद।