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नागलोक और नागों का रहस्य: पाताल लोक, नागों का वास, शेषनाग का भगवान ववष्ण क साथ सबध और नाग पचमी का महत्त्व।

कल्पना कीजिए... एक ऐसा जीव जिसके बारे में कहा जाता है कि वो अमरत्व का रहस्य जानता है। जिसकी एक नज़र में मृत्यु है तो दूसरी में जीवनदायिनी शक्ति। जिसे देवता भी अपने सिर पर धारण करते हैं। हम बात कर रहे हैं नागों की... हिंदू परंपरा के सबसे रहस्यमय और पूज्य प्राणियों की।

लेकिन सवाल ये है कि साँप, जिसे आमतौर पर डर और खतरे का प्रतीक माना जाता है, वो हमारे मंदिरों, पुराणों और त्योहारों में इतना पूज्य कैसे बन गया? क्या आप जानते हैं कि केरल के कुछ मंदिरों में आज भी मन्नारसाला की 'नागमाता' को साक्षात देवी मानकर पूजा जाता है? और कर्नाटक के कुक्के सुब्रमण्य मंदिर में तो भक्त सर्पदोष से मुक्ति पाने के लिए माथा टेकते हैं। ये सिर्फ परंपरा नहीं... ये एक जीवित इतिहास है, जो वेदों से लेकर आज तक चला आ रहा है। तो चलिए, आज इसी इतिहास के पन्ने पलटते हैं...। "वेदों में साँपों को अक्सर राक्षसी शक्ति के रूप में देखा गया। जैसे वृत्रासुर—एक विशाल सर्प जिसने समस्त जल को अपने अंदर समेट लिया था। इंद्र ने उसका वध किया, पर यहीं से नागों की कहानी शुरू होती है। लेकिन फिर क्या हुआ कि महाभारत और पुराणों में यही सर्प देवताओं के सहयोगी बन गए? शिवजी के गले में वासुकी, विष्णुजी की शय्या शेषनाग... ये बदलाव सिर्फ मिथक नहीं, बल्कि हमारे समाज और विश्वास के विकास की कहानी कहते हैं!

क्या आपको पता है कि नाग पंचमी पर दूध चढ़ाने की परंपरा असल में क्यों शुरू हुई?  कहते हैं, ये उसी वृत्रासुर की याद में है, जिसने जल रोककर धरती को सुखा दिया था। दूध चढ़ाकर हम नागों को शांत करते हैं, ताकि वो फिर कभी प्रकोप न दिखाएँ। पर आज यही परंपरा विवादों में क्यों है?  इसका जवाब हम आगे जानेंगे..."

हर साल श्रावण मास की पंचमी को लाखों लोग नागों को दूध, फूल और धूप अर्पित करते हैं। केरल के मन्नारसाला मंदिर में तो एक अनोखी परंपरा है—यहाँ की नागमाता (एक सर्पिणी) को मान्यता है कि वो बाँझपन दूर करती है। भक्त उनके सामने सोने-चाँदी के सर्प चढ़ाते हैं।लेकिन यहाँ एक कड़वा सच भी है। आज वैज्ञानिक कहते हैं कि साँपों को दूध पिलाना उनके लिए हानिकारक है। क्या हम अपनी आस्था और प्रकृति के बीच संतुलन बना पाएँगे?

 

हर साल श्रावण मास की पंचमी को लाखों लोग नागों को दूध, फूल और धूप अर्पित करते हैं। केरल के मन्नारसाला मंदिर में तो एक अनोखी परंपरा है—यहाँ की नागमाता (एक सर्पिणी) को मान्यता है कि वो बाँझपन दूर करती है। भक्त उनके सामने सोने-चाँदी के सर्प चढ़ाते हैं।

सोचिए, एक ऐसा समय जब साँपों को अंधकार का प्रतीक माना जाता था। जब देवता इंद्र को एक सर्पराज वृत्रासुर से युद्ध करना पड़ा, ताकि धरती पर जल की धाराएँ फिर से बह सकें। ये कहानी ऋग्वेद में लिखी गई है, जहाँ सर्पों को राक्षसी शक्ति के रूप में देखा गया। लेकिन फिर क्या हुआ कि यही सर्प महाभारत और पुराणों में देवताओं के सबसे करीबी बन गए? शिवजी के गले में लिपटे वासुकी, विष्णुजी की शय्या बने शेषनाग—ये बदलाव सिर्फ कल्पना नहीं, बल्कि हिंदू धर्म के विकास की गाथा है! आखिर ये बदलाव क्यों आया?  क्या वृत्रासुर जैसे सर्पों को हराने के बाद देवताओं ने उनकी शक्ति को अपने अधीन कर लिया? या फिर ये समाज के प्रकृति के प्रति नज़रिए का बदलाव था? चलिए, इस रहस्य को सुलझाते हैं..."

वैदिक काल में सर्पों को अवरोधक माना जाता था। वृत्रासुर (जिसे 'अहि' भी कहा गया) एक ऐसा ही सर्प था, जिसने सभी नदियों को अपने मुँह में बंद कर लिया था। इंद्र ने अपने वज्र से उसका वध किया, और इस तरह जल को मुक्त किया। पर यहाँ एक गहरा रहस्य छिपा है—क्या वृत्रासुर सच में एक सर्प था, या फिर ये प्रकृति की उस शक्ति का प्रतीक था जो जल को रोक लेती है? कुछ विद्वान कहते हैं कि वृत्रासुर सूखे का प्रतीक था, जिसे इंद्र (वर्षा के देवता) ने हराया।

महाभारत और पुराणों में सर्पों की भूमिका पूरी तरह बदल गई। अब वे दिव्य सहयोगी हैं। जैसे: वासुकी: समुद्र मंथन में रस्सी बने, जिनकी पीठ पर देवता और राक्षस खींच रहे थे। शेषनाग: जिनके फन पर पूरा ब्रह्मांड टिका है, और जो विष्णुजी का आसन हैं। यहाँ सर्प अनंतता, शक्ति और संयम के प्रतीक बन गए। क्या ये बदलाव इसलिए आया क्योंकि ऋषियों ने सर्पों की ऊर्जा को समझ लिया? या फिर ये प्रकृति पूजा का हिस्सा था?

हिन्दू धर्म में सर्प सिर्फ एक जीव नहीं, बल्कि एक गहन दार्शनिक संकेत है। देखिए कैसे: खाल बदलना = पुनर्जन्म: जैसे साँप पुरानी चमड़ी उतारकर नया जीवन पाता है, वैसे ही आत्मा भी शरीर बदलती है। कुंडलिनी शक्ति: योग में सर्पिलाकार ऊर्जा मूलाधार से सहस्रार तक जाती है—ठीक वैसे ही जैसे सर्प कुंडली मारकर बैठता है!

शिव और विष्णु का साथ:

वासुकी (शिवजी के गले में): प्रकृति पर नियंत्रण का प्रतीक।

शेषनाग (विष्णुजी की शय्या): ब्रह्मांड का आधार। क्या आप जानते हैं कि शेषनाग के हजार फन हजार ब्रह्मांडों को थामे हुए हैं?

क्यों सर्प ही ये भूमिकाएँ निभाते हैं? शायद इसलिए कि ये अमरत्व के सबसे करीब हैं—न जन्म लेते हैं, न मरते हैं, बस रूप बदलते हैं!"

अब एक चौंकाने वाला तथ्य: केरल के ये सर्पकवु (सर्पों के पवित्र वन) असल में प्राचीन वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी हैं! इनमें: जल संरक्षण: पेड़ों की जड़ें भूजल को रिचार्ज करती हैं। जैवविविधता: यहाँ हजारों दुर्लभ प्रजातियाँ (पौधे, कीट, सर्प) सुरक्षित हैं। सांस्कृतिक संरक्षण: स्थानीय लोग इन वनों को नागदेवता का निवास मानकर कभी नुकसान नहीं पहुँचाते। लेकिन एक दुखद सच ये भी है: केरल में 10,000 सर्पकवु थे, आज सिर्फ 1,200 बचे हैं! शहरीकरण की भेंट चढ़ गए बाकी।

तो क्या सर्प सिर्फ पूजे जाने वाले देवता हैं, या फिर धरती के असली संरक्षक? शायद दोनों। अगली बार जब आप किसी सर्पकवु के पास से गुज़रें, तो याद रखिए—ये छोटे जंगल हमारे अतीत की विरासत और भविष्य की उम्मीद दोनों हैं!

क्या आपके आसपास ऐसा कोई पवित्र वन है? कमेंट में बताइए! और हाँ, अगर आपको ये जानकारी अच्छी लगी, तो शेयर ज़रूर करें।

धन्यवाद

omkar Singh 21 May 2025
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